नश्तर खामोशियों के
शैलेंद्र शर्मा
1.
बार-बार उमड़ आते उफान से मेरी आँखें गीली हो जाती थीं. और सच, मैं इतने दिनों बाद महसूस कर रही थी कि मैं अभी भी पत्थर नहीं हुई हूँ...मगर कैसी अजीब और कष्टदायक थी यह अनुभूति!
सारा वातावरण उमस से भर आया था. एक तो वैसे ही डिसेक्शन हॉल में तीन घंटे काटने मेरे लिए मुश्किल हो जाते थे, ऊपर से उस दिन मेरे पिछले दिन बार-बार बड़ी बेशर्मी से सामने आ खड़े होते थे और भीतर कुछ पिघल-पिघल जाता था.
डबडबाती आंखों से मैंने डेमोंस्ट्रेटर-कक्ष के पंखे की तरफ देखा...घर्र-घर्र-घर्र...वही मंद गति...वही मशीनी नियति, मेरे जैसी. और फिर...फिर एकदम से आनंद की वही लिखावट आंखों के सामने तैर गई और मेरे अंदर का दर्द उमड़ कर बाहर आने की कोशिश करने लगा.अपनी रुलाई पर पांव रखती हुई मैं उठ खड़ी हुई.
डिसेक्शन-हॉल नहीं जा सकती थी, फिर वही झेलना पड़ेगा, कल जैसा. सब लोग उधर ही जा चुके थे. मरी हुई चाल से मैं गैलरी पार करके प्रोफेसर साहब के कमरे में पंहुची. चपरासी ने सलाम ठोका, डेमोंस्ट्रेटर की हैसियत से नहीं, विभागाध्यक्ष की पत्नी की हैसियत से. भीतर कुर्सी खाली पड़ी थी. चपरासी ने बिना पूछे ही बताया कि साहब प्रिंसिपल-आफिस गए हैं. मीटिंग है, शाम हो जाएगी…
पोर-पोर दुखते बदन को लेकर अशक्त-सी, निढाल होकर मैं आरामकुर्सी पर लेट-सी गयी. एनालजिन मंगा लूँ कैंटीन से, खयाल आया. फिर अपने को लताड़ते और धिक्कारते हुए डांटा कि अब दवाइयों से भी कोई फायदा नहीं होता. दवाइयाँ वहां तक नहीं पँहुचतीं न...जहां पर एक अंधेरे कमरे में पंखे से किसी की लाश लटक रही है…
नींद तो नहीं लगी थी, मगर लगा, कहीं कुएं में से आवाज़ आ रही है. कोई मुझे नाम से बुला रहा था. आंखें खोलीं, तो एक नारी-मूर्ति सामने खड़ी थी. "यहां बैठी हो मेरी जान, और मैं सारा डिपार्टमेंट छान आयी. पहले डिपार्टमेंट के बाहर इंतज़ार किया, फिर स्टाफ-रूम में देखा, मुझे क्या पता था कि मैडम मियाँ जी के कमरे में आराम फरमा रही हैं."
मैं खड़ी हो गई और पहचानने की कोशिश करने लगी. शक्ल तो जेहन में कहीं पहचानी सी लग रही थी, मगर इतने अपनेपन से कौन बोल सकता था! मैंने दिमाग पर ज़ोर डाला कि उसने मेरी आँखों में अपरिचय का भाव पढ़ लिया. "अरे क्या पहचानी नहीं? इत्ती जल्दी भूल गयी तू...विनी?"
बस, उसके विनी कहने की देर थी और मैं पहचान गयी--बाप रे! दीपा मलिक! "माय गुडनेस दीपा!...कौन पहचानेगा तुझे? पूरी भैंस हो गई है तू तो," मेरे मुँह से निकला और बांहें अनायास ही खुल गईं.
"और तू वैसी की वैसी है. न सावन हरी..." वह बांहों में खिलखिलाई और मुझे किसी ने बहुत पीछे खींच लिया...सुगंध, फूल, झरने, निरभ्र आकाश...
"देख न यार, कैसे हो गए हैं हम लोग? कहाँ तो इतना प्यार था, और कहाँ यह भी नहीं पता कि किस शहर में रह रहे हैं. कैसे इस ज़िन्दगी के चक्कर हैं यार..."
"अरे बैठ तो सही!"
"नहीं, बैठूँगी नहीं.बाहर कार में जनाब बैठे हैं, ज़रा जल्दी में हूँ. वह तो मैं अनु की वजह से चली आई इधर, नहीं तो घर ही आती...अरे! यह कहाँ गया?"
पर्दा खिसका... और मेरे हँसते होंठ जड़ होकर रह गए. ये अनु, वही...कलवाला वही! दो मासूम आंखें ज़ेहन में उभर आईं.
"विनी, ये मेरे मामाजी का लड़का है, आनंद. इस साल अपने मेडिकल कॉलेज में इसका एडमिशन हुआ है. वैसे यहीं होस्टलर है. पापा इसके लोकल गार्जियन हैं न, इसलिए रैगिंग के डर से हमारे घर ही रह रहा है." फिर वह उसकी तरफ मुड़ी, "कहूँ?"
वह शरमा गया. उफ्फ!...उसका शर्माना भी उसी तरह का था....तड़-तड़...आंखों के पर्दे पर पीछे से एक सैलाब हिलोरें मारने लगा. "कल क्या तूने इसे डिपार्टमेंट में डाँट दिया था? लगता है, जरा ज़ोर की हो गयी." मैं नर्वस सी हंसी, जैसे कि रोई होंऊ.
"कल घर में देखा कि श्रीमान दुखी-दुखी से बैठे हैं. पूछने पर पता चला कि पहले ही दिन मेडिकल कॉलेज में जबरदस्त हड़काई हो गई. कहता है कि मेरी कोई गलती नहीं थी. बिना बात ही..."
"दीदी...!" उसने शिकायत भरे स्वर में बात काटी.
"हाँ-हाँ, चुप रह!" वह हंसते हुए बोली, "घर में कह रहा था कि उनसे मत कहना कि मेरी कोई गलती नहीं थी." उसने मेरी कमर में बाँहें डाल लीं. "मैने कहा कि विनी से मेरे रिश्ते ऐसे नहीं हैं कि वह मेरी किसी बात का बुरा माने..." वह वैसे ही शरमाया सा खड़ा था, अब तो बुरी तरह झेंप गया.
"मैंने पूछा कि कौन डेमोंस्ट्रेटर है तो उसने डॉक्टर वंदना भारद्वाज बताया तो मैं सोच में पड़ी, फिर अम्मा ने बतलाया. बैसे पता तो तभी चल गया था कि तेरी शादी यहीं हो गयी है."
मेरे पास कहने को कुछ नही था. बेवकूफ सी खड़ी रही. सामने खड़े आनंद वर्धन नाम के इस लड़के की उपस्थिति दिमाग पर हथौड़े बजा रही थी. बाहर कार के हॉर्न की आवाज सुनाई पड़ी तो वह चौंककर बोली,"मैं चलूँगी अब, ये इंतज़ार कर रहे हैं."
गैलरी में दो-एक पुरानी सहेलियों और दोस्तों के बारे में बातें हुईं. बाहर कार में बैठे अपने पतिदेव से दीपा ने परिचय कराया. नमस्ते हुई. "अच्छा विनी! अनु का ख्याल रखना जरा, और ...अरे हाँ, डॉ. साहब का फ़ोन नम्बर तो लिखा दे."
और उस वक्त तो हद ही हो गयी, जब मुझे अपने ही घर का फ़ोन नंबर याद नही आया. जैसे-तैसे उसे एक नंबर बताया, फिर भी लग रहा था कि आख़िर वाली संख्या आठ नहीं, सात है.
कार स्टार्ट हुई, तो दीपा के पति के साथ उसके मामाजी के लड़के ने भी हाथ जोड़ दिए. गला रुंधने से लगा. मेरी शक्ल पर इतनी गरीबी, इतनी बेचारगी थी कि उसने नजरें झुका लीं.
कार मोड़ पर जाकर ओझल हो गयी. धूल के गुबार को मैं कुछ क्षणों तक देखती रही...एक जोड़ा मासूम आँखें और लंबी पतली अंगुलियां मेरे अंदर तक तरल हो आईं.मैं उन अंगुलियों को होठों से लगाकर किसी से कह रही थी--अना, तुम्हारी अंगुलियां बिल्कुल सर्जरी के लिए ही बनी है, पतली, लंबी, सुडौल... टिपिकल सर्जन्स फिंगर्स…
क्या दीपा नही समझी होगी कि उसके भाई के साथ कल जो कुछ भी मेरी तरफ से हुआ, उसकी जड़ में क्या था ? क्या वह नही समझी होगी कि मेरा खोखला आक्रोश इस बच्चे पर सिर्फ इसलिए उतरा था कि इसका नाम भी आनंदवर्धन था ? अगर समझी भी तो उसने इस बात का जिक्र क्यों नही किया ? क्या मेरे अना को वह इतनी जल्दी भूल गयी? नहीं, असंभव है!
मगर दीपा एक अच्छी और समझदार दोस्त है. वह जानती है कि जिस चीज के जिक्र से आसपास की सारी दीवारें काली हो जाएं, और कॉलेज श्मशान में बदल जाए, उसका जिक्र ही क्यों किया जाए. मेरे मन के कोर को आहत न करते हुए उसने अपने चिरपरिचित अपनेपन और प्यार से अपनी बात कह दी थी.
और इसी तरह डूबते-उतराते हुए मुझे उसके भाई से बहुत-बहुत सहानभूति होने लगी. कल के प्रकरण की बातें बार-बार आँखों के सामने तैरने लगीं. यूँ लगा, धीरे-धीरे खुद को छील रही हूं...पर्त-दर-पर्त...